जो बीत गया (poem)

 जो बीत गया


सब कहते हैं, बीती बातें भुला दो, 

और जो है, नई - नवेली उसे गले से लगा लो।

जो बीत गया है, उस पर क्या रोना, 

क्या हंसना, कोई यह नहीं बताता।

जो नहीं है सपना, उसे कोई कैसे भुलाए।

बिना शरीर के रोती कलपती आत्माओं को,

कैसे कोई समझाए। 

जिनसे घबराते हैं, मृत्यु के सन्नाटें,

उनसे कोई पीछा कैसे छुड़ाएं।

काल के प्रवाह को, रोका नहीं किसी ने,

वह रुकेगा भी नहीं, न ठहरेगा और न टूटेगा,  

पर मन की उड़ान, जब ढूंढेगी स्वयं की पहचान,

कोई नहीं रहेगा, सत्य से अनजान। 

काल नहीं मिटा सकता, मातृत्व का वरदान,

धरती का अभिनंदन करने, मातृवंदना,

राष्ट्र की अर्चना, जिसने दी स्वयं की आहुति ।  

कर दिए अर्पित शीश, इनकी चिताएं बुझी हैं,

तो बुझ जाने दो, राख भी उड़ जाने दो,

 पर धरती तो है, बलिदान की साक्षी। 

वही बनेगी, दिव्य - चेतना की आरक्षी। 

जहां सिर शोणित मतवाले शहीदों का,

देशभक्त वीरों का, वहां मेले तो लगेंगे, 

वंदनवार भी सजाएंगे, पूजन भी होगा, मंदिर भी बनेंगे। 

अदृश्य आत्माएं, अतृप्त आत्माएं कर रही है, मौन पुकार ।

शब्दहीन गुहार पर वे नहीं चाहती प्रतिरोध, 

नहीं करती किसी का विरोध ।

उनकी पुकार है, जागते रहो, जागते रहो ।

निज की अस्मिता की रक्षा करते रहो । 

मत गिरने दो, सांस्कृतिक आदर्शों को,

वे ही है तुम्हारी आत्मा, 

जहां करता है निवास, 

तुम्हारा परमात्मा।

*...........*



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